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चतुरवचनामृत

पांच भुजा मुख पांच पुनि, चार भुजा मुख चार।
बार बार परिवार सह, प्रणवहुं प्रणताधार।।1।।
अखिल विश्व में एक जो, रहे अनेक प्रकार।
सदा सहायक होत सो, निज जन मन अनुसार।।2।।
विदुर विदुर तिय वायु सुत, वाणनाथ वृजराज।
पूरण करि हैं यह कथा, सेवक सारन काज।।3।।
चतुरानन घनश्याम तन, अरु कपद्दि अखिलेश।
शेष चरित के शोधि कैं, सो अध हरो अशेष।।4।।
एकलिंग गिरराज धर, ऋषभदेव भुज चरा।
सुमरों सवा सनेह सों, चार धाम मेबार।।5।।
श्री इकलिंग सरुप की, है इकलिंग पुराण।
तेहिं मह इक अव्यक्त को, किंचित भयो भखान।।6।।
श्रीपति की गति अलख अति, तदपि भगति अनुसार।
वल्लभ मत में प्रगट है, प्रागट कथा प्रकार।।7।।
श्री ऋषभेष परेश को, चरित पुराणन माहिं।
व्यास समास समेत सो, क्हयो कह्यो नहिं जाहिं।।8।।
श्री अनंत भगवंत की, कथा अनन्त प्रकार।
ग्रंथ अनन्तन में कही, जिन जिन मति अनुसार।।9।।
मेदपाट तीरथ भयो, जिन प्रभु के पद पाय।
सो सब कथा विधान कों, यहां बरनि हौं नांय।।10।।
चतुर भुज भगवान को, चरित अनेक प्रकार।
तेहि में सों कछु कहत हैं, 'चतुर' बुद्धि अनुसार।।11।।
नाम 'चतुर' पे मंद मति, यह न विचारो कयो।
चतुर भुजा को दास शठ, जानि चतुर सब कोय।।12।।
भगत अनेकन भाव सों, भजत एक भगवान।
तेहि को तेसो होत है, जेहि को जेसो ध्यान।।13।।
राधापति कोऊ भजे, कोऊ शेष सरुप।
पे विशेष जन भजत कहि, ऊर्मिलेश अहिभूप।।14।।
शेष कथा अरू स्तोत्र में, शेषरूप को ध्यान।
ताते इहि मंह करत ऊंहि, निर्गुण को गुणगान।।15।।
जो अशेष कारण परे, शेष सुहावन नाम।
ताके चरण सरोज जुग, किंकर करे प्रणाम।।16।।
रुप चतुर्भुज नाथ को, मंदिर जह गडबोर।
राम लखण जंह लसत प्रभु, सुभग सुहावन ठौर।।17।।

छंदपद्धरी
देवा हित जे देवाधि देव।
अज अखिल अनाग जहां भेव।
सितचार धार के दरश दीन्ह।
अपनी पुराणता प्रगट कीन्ह।।18।।
जे हेतु उदयपुर के नरेश।
नहिं करत बीच मंदिर प्रवेस।
सो कथा महा सुंदर रसाल।
नाभाजु कही बिच भक्तमाल।।19।।
दोहा
इमि श्री रूप सरुप की, है अनूब बहु बात।
सुनहुं सरस श्रोता सुमति, चरित चार जेहि हात।।20।।
चारहुं जुग रक्षा करन, चारि पदारथ दैन।
चार भुजा के दास सम, चार वदन हू हैन।।21।।
छंदपद्धरी
मेवार माहिं इक सुभग गाम।
सब कहे भूरक्यो तासु नाम।
तहं के ठाकुर शुभ सरल चित।
ठाकुर सेवामें रहत नित्त।22।।
शारंगदेव के वंश मांहिं।
शारंग धरन पद प्रीति जाहि।
श्री चारभुजा यह नाम छोर।
मन गयो न कबहू और ओर।।23।।
वह दया करत सब पे समान।
पे उर अवगुन नहिं दिये आन।
ताके समान ताकी सुतीय।
वामांगि वामता रहित हीय।।24।।
हरि कृपा ऐक सुत भयो तास।
वैराग्य मनहूँ मति सो प्रकास।
सुन्दर सुशील गुण को निवास।
जेहि कीनो अपनो कुल प्रकाश।।25।।
सुत साथ बड्यो पितु मातु नेह।
को नेह रहितअरु सिहत देह।
लखि सखन संग खेलत कुमार।
हिय हर्ष लहत दंपति अपार।।26।।
इक वार सादड़ी राज भौन।
कीन्हो मिलन हित सुभट गौन।
तिन भूमि करी इनको प्रदान।
यह जात वहै उपकार मान।।27।।
तेहि समय बहुत जन गये आय।
बांधे नर को पशु सरिस लाय।
जे चहिय खीन ते अंग पीन।
पुनि चहिय पीन ते अशुभ खीन।।28।।
हिंसा नर शिशु की बिना दोष।
यह करत हुतो शठ प्रथम पोष।
शिशु सबहु प्रिय पे प्रिय न ऐह।
बालक ग्रह मानहु धरे देह।।29।।
भूषम हित भौरे शिशु भुराय।
खल देत यही यमपुर पठाय।
हम साथ लगे अति जबहि नात।
यह दुष्ट चित्त तब लग्यो हाथ।।30।।
इन्द्रिय समूह को मन समान।
दे प्रथम लोभ पुनि हरत प्रान।
ऐहि के अधर्म नहिं कहे जात।
बातहु नहिं खल की भलीनाथ।।31।।
सुनि के यों नृप दीनों निदेश।
धर ते शिर धरदो दूर देश।
सिर लगे लोग जब करन वैध।
तब करे भूरके पति निषेध।।32।।
दोहा
एहि मारे आवे नीहं, एहिं मारे जे बाल।
या तें या को छाडिये, कारिकें कृपा कृपाल।।33।।
नयन नीर सूखत वदन, त्राहि-त्राहि कहि त्राहि।
आज बचे तो फेर अस, काज करेगो नाहि।।34।।
कूर आपनी कूरता, सूर सूरता भांति।
संकट हू सहि कठिन अति, संत न छोटे शांति ।।35।।
अपने अवगुन कों अबसि, दुष्ट न दे हैं जान।
बंधन बिन कीनी जहू, तो हू कुटिल कबान।।36।।
या को हम छोरें नहीं, नहिं राखें यहि थान।
तुम चाहो तो तुरत यंहि, गहि घर करो पयान।।37।।
ले निदेश तेहि संगले, आये अयन अशंक।
तिन समीप सो यों रहे, ज्यों मयंक उर अंक।।38।।
छंदपद्धरी
कारज घर के वह करत धाय।
मन जाय जहां झट मनहु जाय।
तिनहू तेहि को कीनो भरोस।
नहीं मिल्यो दुर्यो हू दुष्ट दोस।।39।।
पितु मातहुते ऊपर कुमार।
दिन दिन दूनो सो करे प्यार।
बिन लखै एक छिन व्है अधीर।
टेरत अरु गेरत नयन नीर।।40।।
बापू कहि लेवे जब पुकार।
दादा कहि दोरे छोर थार।
बालक विनोद में शिशु लगाय।
कछु कारज को चुप चल्यो जाय।।41।।
पुनि आवत जब करि कछु विलंब।
शिशु लगे अंक तजि अंक अंब।
फिर रहैं संग हरि जथा भक्त।
करि बाल केल सों मन विरक्त।।42।।
विधि मनहु दया फल तुरत दीन्ह।
मानस सम सेवक मंजु कीन्ह।
तेहि कहे दुष्टता के अजोग।
यहि दुषश्ट कह्यो ते दुष्ट लोग।।43।।
दोहा
गोलक पुनि हींसा निरत, सोऊ नर शिशु केर।
सोऊ बिन अपराध के, तिहिं भरसो दे फेर।।44।।
अधिक पूतना भ्रात सों, वधिक कपट की खान।
जे अस शठ के वश भयो, सो धुख लह्यो निदान।।45।।

छंदपद्धरी
इक वार रहसि बापू पुलाय।
कहि आज लाल तृन हरन जाय।
शिशु कह्यो महीं तव चलों साथ।
तेहि कह्यो करो जो मोर वात।।46।।
ते कहि कवन सी करी नांय।
जो मोको संग न लिये जाय।
गोलक बोल्यो इमि करहु तात।
में अबहि आगे चल्यो जात।।47।।
पाछे कोऊ जो तुहि लखे नांय।
त्यों इहि मारग ते जाउ आय।
तेहि विनज कूंप ते संग संग।
ले जेहों जहं सुन्दर विहंग।।48।।
रनिवास जाय करि अशन लेहु।
पुनि आहु तहां फ मधुर देहु।
नहिं फल विहंग नहिं और चाह।
पे तव वियोग उर दुसह दाह।।49।।
में कह्यो करहु तुम ताहि भांत।
सुनिअसन हेत ढिग गयो मात।
इहि कह्यो तबे सबको सुनाय।
अब घास गेह में घास नांय।।50।।
दोहा
ले रसरी अरु दांतरी, कियौ गास हित गौन।
शिशु सुन्दर फल हेत भल, कर्यो न भोजन भौन।।51।।
पटवारी के पाहुने, जानि आपने लोग।
निकसो छाने जान शिशु, मिल्यो भलो संजोग।।52।।
वरुण पास ते कठिन अति, कुटिल कपट की पास।
शिशु सनेह की पास परि, कर्यो तास विश्वसा।।53।।
निकरत निर्जन वीथि व्हे, छांने अंग छिपात।
ज्यों विभिचारी पुरुष दुरि, परनारी पर जात।।54।।
छंदपद्धरी
जब पहुं गयो शिशु कूप पास।
लखि हृदय अदय के भो हुलास।
झट दोरि लयो खल उर लगाय।
मग तोहि लख्यो के कोई नांय।।55।।
में आई गयो तस करि दुराव।
जेहि ते नर कोउ न जान पाव।
ले गयो शिशुहि एकांत ठौर।
जेहि ओर न आवे भूलि और।।56।।
तेहिं विकट रुप बालक विलोक।
भय भूरि कियो लघु उरसि औक।
दादा अपराधा कियो कोय।
केहि हेतु कोप अस भयो तोय।।57।।
सठ मारि तोहि इहि ठां अबार।
लै हौं आभूषण सब उतार।
आभूषण सगरे अबहि लेव।
मम दोष होहिं तस मार देव।।58।।
पे दूसण मेरे दे सुनाय।
जेहिते अब कबहहूं करुं नांय।
कहि आयो नहि नहिं लख्यो कोय।
मनते न मिटें जे दोष होय।।59।।
दोहा
दूषण घर भूषण नहीं, दूषण भूषण केर।
लोभ लग्यो उपकार अस, देत घड़ी में गेर।।60।।
छंदपद्धरी
में दोषदया से सदा दूर।
शिशु प्रान हरै धन करैं भूर।
तव प्रान तजे मम प्रान जाय।
तातें अब तोको तजों नांय।।61।।
जब लो पुनि शिशु बोले संम्हार।
तिन हार कंठ कीनो प्रहार।
तिहिं लगे पर्यो महि अबल बाल।
खल पुनः प्रहारी लखि विहाल।।62।।
हरि के कबंध सों सिर सबंध।
ले लये अभूषण लोभ अंध।
पीपर के तरु तरे दीन्है दुराय।
शिशु शल्य श्वा विध विवर ठांय।।63।।
दोहा
ध शिर पातक पूर घट, शठ तिन भूर उठाय।
झट शिशु फावन पावं घर, धर तेहि टेर्यो आय।।64।।
करि अंतः पुर असम कछु, गयो न बहुर्यो फेर।
ढीठ तुम्हारहु ढिग न तो, लेहु पौरि पर हेर।।65।।
चोपाई
सुनि गेर्यो शठ शिर तें चारो।
घातक पातक बढ्यो न भारो।।
दौरि पौर पे पायो नाहि।
पर्यो मंद महि मुरछा खाई।।66।।
लाल लाल कहि लाग्यो हेरन।
पापी दुहुँ दृग पानी गेरन।।
लखि अस हाल विहाल भये सब।
काहु न पायो हेरि कहूं तब।।67।।
जानि जा जन तहां न जावे।
मत सुत तितहु दृष्टि न आवे।।
बार बार वह वारि विलोके।
मोड्या को मानुष सब रोके।।68।।
मरन हेत शठ शस्त्र उठावे।
माथ फोरि के मुरछा खावे।।
पुत्र भ्रात तोको में जान्यो।
सुत नहिं ते सनेह उर आन्यो।।69।।
हे प्रभु नाथ कहों का तोही।
जो आस दिवस दिखायो मोंही।।
शठ कपटी की कुटिल कहानी।
बहुत कठिन है कहन बखानी।।70।।
दोहा
सुत ते सुत के तात को, ताको सोच विशेख।
अपने सो समझे सुजन, बाहर की गति देख।।71।।
चाहे कोटि कलान की, मुख पे कीजे बात।
जानत सब के जान की, सदा जानकी नाथ।।72।।
दंपति की दिन पति सहित, अथई आवन आप्रत।
निशा संग लागी बड़न, सुत विनाश की त्रास।।73।।
छंदपद्धरि
दुख
दंपति के उर छाय रयो।
तहं ज्ञान विरागन थान लयो।
जिय धौं जुग को इक ह्वे निकस्यो।
प्रतिमा सम बीच शरीर वस्यो।।74।।
उर सुन्दर जो शिशु नहे रयो।
वह भूरि भयानक शोक भयो।
जितनों जिह नेह बढ़ावत है।
तिहं ही न तितो दुख पावत है।।75।।
दुख में सुख सागर याद भई।
पति संकट लाय विलाय गई।
हारि को जब नाम कड्यो मुखतें।
मन संकट सों निकस्यो सुखतें।।76।।
इषु आगि मनों उर लागि जल्यो।
निर वारण वारुण वाण चल्यो।
जनु काम निकास दह्यो तन को।
पुनि वस्तु विचार भयो मन को।।77।।
हरि रोषहि शांति विराज गई।
जग में अरुझे जनु भक्ति गई।
मन मानहु आधि समाधि लगी।
दुख देह भये ममता विलगी।।78।।
लगि लालच सर्व अनित्य लग्यो।
मन मोह भये जनु ज्ञान जग्यो।
लगि चित्त अचिंत विचिंतन में।
नहिं किंचित चिंत वची तन में।।79।।
पति को सुख यों दुख मानि तिया।
उनमत्त कियौ सुत शोक पिया।
घन पीर दुरावन धीर धरी।
इहं भांत उचारन वात करी।।80।।
नहिं नाथ तुम्हें उपदेश करों।
सुमिरो किन ज्ञान वही तुम्हरो.
जितने जनमे सब जावहिंगे।
मरि जावहिं ते फिर आवहिंगे।।81।।
कोउन कालहिं रोकि सक्यो।
छिन एकन आवत वीत चुक्यो।
नर होवति बात विचारत हैं।
निहचे नहिं काल निहारत हैं।।82।।
इक के सुख सों दुख दूसर के।
किंह सोच करें किंह सों हरखें।
सुख होवत जो सुत के जनमें।
दुख होत वही अरि के मनमें।।83।।
नर दंतुन निंब सदा करहीं।
कटुता मुख में किन होत नहीं।
शिर धूर परे धर सूर लरे।
लखि लोहहिं कायर दूर दुरे।।84।।
चित चाहत सो सुख पावत है।
अन चाहत कष्ट कहावत है।
यह बात अवश्य विचारन की।
छिन एकहु नाहिं विसारन की।।85।।
जितने जन पूरब काज करे।
सब पावत कर्म्म प्रवाह परे।
यहिं ते शुभ काज नहीं तजिये।
उर अंतर में प्रभु को भजिये।।86।।
छल छंद भर्यो न तजे छलता।
दरसावत ऊपर ते ममता।
इमि अंतस में हरि ध्यान धरे।
जग जाहिर बाहिर काज करे।।87।।
जुग लोचन पे जस काच रहे।
सितहू तिंह दोसत रंग वहे।
तिम जीव अनादि प्रपंच पर्या।
सत चेतन रुप सदा बिसर्यो।।88।।
लघु गोमय हेत गंवार लरे।
लिख कैं सु उदार हंसे हियरे।
हमको ंलखि त्यों सब संत हंसे।
जिनके ममता मद मोह नसे।।89।।
ममता मन मंदिर मंद रचे।
तर तासु गयो निहचे न बचे।
बिन नीव अनेकन भांति भयो।
भय ना तेहि जो तजि भाजि गयो।।90।।
हरि ज्ञान कह्यो रन अर्जुन को।
भव बीज भली विध भर्जन को।
महं ज्ञान उपासन कर्म कहै।
अवतार धरे श्रुतिसार अहै।।91।।
तिहि के अनुसार विचार करें।
दुहुं ओर अनंत अनंद करे।
पतनी की कही पतिनीकि कही।
उर की कछु बाहिर बात भई।।92।।
दोहा
शोक नहीं उर औक मम, कियो तिलोक अधीश।
हर्ष चिह्न मोहं भये, तो कहं शको ही दीश।।93।।
धन सो सावंर अंग जो, मन सों निसरे नाहिं।
तनसों तनकौ काज नहिं, आज रहै कै जाहिं।।94।।
कर्म कहा अकरम कहा, धर्म न जाने कोय।
सुमिरें जो घनश्याम को, वही श्याम को होय।।95।।
जेहि के मुख हरि नाम सहू, कढ़े नयन जल धार।
तेहिं पे सब जप जोग तप, वार वार दों वार।।96।।
विश्वनाथ के वश सकल, सो व्यापक सब ठांय।
ताते सुख दुख दुंद जे, मोकहं एक लखाय।।97।।
समरथ सकल प्रकार तें, सेवक रुचि अनुसार।
विपति विदारत दास की, धार विविध अवतार।।98।।
जो मन को कछु हटकि कै, करें ईश की और।
तो सुमिरण सामां सकल, जो विसर की ठौर।।99।।
आन करन अकरन, करन, हरन शरन की पीर।
धरनि धरन निज नख धरन, दरन शंभु धनु धीर।।100।।
कृपा करन वह करन किम, अकरन कवन प्रकार।
आन करन भगवान सों, चाहिय करन उचार।।101।।
आदि करन सबकगो वही, अंत करन नहीं आन।
अमिय अमित गुन गेह किय, मीरां माहुर पान।।102।।
अस दयाल दशरथ सुवन, जो रखवार हमार।
तो विगार नहिं करि सके, दृग हजार पविधार।।103।।
सवैया
जल बूड़त सूंड रही तिलसी,
करि कौन पराक्रम ते निकर्यो।
कुरुराज सभा बिच लाज रही,
तब का अबला बल काज कर्यो।।
पुरराक्ष प्रयत्न नसे सिगरे,
शिशु साहस कारज काह सर्यो।
द्रुत दोरि हर्यो करुणां करने,
जब दासन पे दुख देखि पर्यो।।104।।
चौपाई
श्री गुसाई निर्मित चौपाई।
सो तुमको सुधि अहें कि नाहीं।।
कर्म प्रधान विश्व करि राखा।
जे जस करहिं सो तस फल चाखा।।105।।
तदपि करहिं सम विशम विहारा।
भगत अगत हृदय अनुसारा।।
पुनि यह विरद हृदय किन लावे।
हम से सठ जेहि ते तरि जावे।।106।।
समरथ शरनागत हितकारी।
गुन गाहक अवगुन अध हारी।।
गई बहोरि गरीब निवाजू।
सरल सबल साहिब रघुराजु।।107।।
यहि विधि वनच अनेक प्रकारा।
सुने संत श्रुति शास्त्र मंझारा।।
प्रेम पुलक पानी दुहुं पूरे।
हृदय देह दृग हरि रस बूरे।।108।।
दोहा
धरा धरन उर ध्यान धर, जुग कर जोरि सनेह।
वियन करत सुख गेह की, दंपति विसरे देह।।109।।
श्लोक
भुवनैक गृहं भुवनाधिपति
भुवनालयमाश्रितकल्पतरुम्‌।
करकञ्ज चुतष्टयवन्तमजम्‌।
महिभारहरं प्रणामि परम्‌।।110।।
न मत्समः कोपि निराश्रयोऽत्र,
सर्वोश्रयो नापि विना भवन्तम्‌।
अनन्यतुल्य। त्वमनन्य तुल्यम्
दीनं दयालो ! न जनं जहीहि।।111।।
विलीनं घोर संसारे आसीनं पाप पञ्जरे।
सर्वश्रेष्ठ गुणैहींनं दीनं मां पाहि भो विभो।।112।।
शक्रजेतृविजेतारं नेतारं सर्वदेहिनाम्‌।
छेत्तारं भवबन्धानां प्रमेतारं च छन्दसाम्‌।।113।।
स्वभक्तप्रीतिपराधीनं् शक्तं स्वाधीनमीश्वरम्‌।
परं व्यापकम व्यक्तं सर्वदं नैमि सर्वदा।।114।।
दौहा
द्वार पाल हित चार द्विज, बुद्ध कल्कि अवतार।
दशहू दिशि दश रुप सों, दासन को रखवार।।115।।
सवैया
कुंडन कानन लोल लसे कछु,
आनन मंजु छई अरुनाई।
ज्यों तुहिनांचल पे शशि सूरज,
संग उये सम सुन्दर ताई।।
ले दृढ़ बाहु सरासन कों,
सहजे जयशक्र जयीसन पाई।
बार अनंत करी करि हैं अस,
संतत संत अनंत सहाई।।116।।
एक अखंड अनंत कहें पर,
वेदहु भेद लहैं नहिं जाकोओ।
सो अपने नजि दासन के हित,
धारि सदा गुण संयुतता को।।
किंकर के हित सो हित ना,
अरु भूलि वृथा भवसागर थाको।
तो खरता सब भांति भई गुण,
नेकहु नाहिन नहैं नरताको।।117।।
दंपति वीचहि राखि जबे, तब नीच बिना सिधरासुर ज्यायो।।
त्यों जयदेव तिया पद्मावति,
गावत गीत गयो तन पायो।।
बालक प्रान दिये द्विज के जव,
पारथ को प्रण शूद्र नसायो।।
किंकर हेत नई हु करे,
अस तो करता करतो चलि आयो।।118।।
रन बीच रशची शहु रीछ कपीसन,
प्रान दिये जग जानत है।
जग गांधि कुमार नये विरचे,
कविते कच जीवन दान कहैं।।
चहिं किकंर लाकन लोक रचे,
तिनहूं कहं जो श्रम नेकन है।
गुरु पुत्र सहोदर आनि दिये,
तिहिं कै न अचंभव की यह है।।119।।
दोहा
इहिं पे इक इतिहास जो, सुने जात संदेह।
कहौं परम कमनीयजो, अब संछेप अछेह।।120।।
सूर सुता संनिधि वसति, गत वयस इक नार।
तिहिं के इक सुत सुधर बिन, नहि अधार संसार।।121।।
छंदपद्धरि
सुत भयो जुवा जब सफल जोग।
वनि विविध भांति संग विविध लोग।
उहिं पार पठ्यो सनमानि मात।
हित ब्याह परम पुलकात गात।।122।।
दोहा
सुत विछोह अति छोहसों, छिनको छम्यो न मात।
तदपि चित धीरज नहीं, जदपि विवाहन जात।।123।।
छंदपद्धरि
वर वधू सहित आवत वरात।
सुनि गई सामुहै मुदित मात।
उहि पार नाव इहि पार नार।
मन मंजु करे मंगल विचार।।124।।
इहिं भांत नाव नियरात देख।
व्हे रहै चित्र से निर निमैष।
वर वधू वदन अब हौं उधार।
लखियौं अपनो तन प्रान वार।।125।।
लखि मौर छौर मंजुल दुकूल।
हिय फूल जात सुधि जात भूल।
जे गये सुवन संगति समंधि।
वृद्धि समेत मति मोह अंधि।।126।।
दोहा
अस विचार के साथ ही, तरनि तनूजा धार।
बूडी तरनि अथाह जल, बूढ़ी विर अपार।।127।।
छंदपद्धरि
तेहि समय शौक जनु धरि शरीर।
जनु औक कियो रवि सुता तीर।
मन मनुज विचारे और वात।
विधि करै और की और भांत।।129।।
वहं आय गये तिन भगात भक्त।
जे जक्त दोष ते नित विरक्त।
जे जग महं जीवत सदा मुक्त।
यह राग करत अनुराग युक्त।।130।।
पद
दुरि देखो री आली, कस ठाढ़े वे नंद दुलारे।।
सघन छांह वारे कदंब कर,
मुकट प्रभा उजियारे।।
वाम बाहु राधा गर डारे,
दूजे डार सहारे।।
मानहु रहसि पाय प्यारी को,
भये मोद मतवारे।।
मानहु अभय देन दासन को,
ऊँचे हाथ पसारे।।
कानन में मकराकृति कुंडल,
मकर केतु के प्यारे।।
गयो मनसि मनसिज मानहु निज,
वाहन राखि दुआरे।।
इन नैननि की नीकि निकाई,
जानै नैन हमारे।।
कोमल तन राधा प्यारी को,
चितवत लोचनियारें।
मोतिन माल लसे उर पे जनु,
प्यारी प्रेम उधारे।।
पीत हरे फहरे दुकूल ज्यों,
प्रीत पताका धारे।।
इन सरोज कोमल पायन तर,
लोचन बिछौं हमारे।।130।।
दोहा
गिरधारी छवि ना लखी, गिरधानर की वार।
ताते प्यारी पास ले, जसनु ठाढ़े गिरधार।।131।।
सोरठा
विधिहु ना सका गया। निरखि नासिका छवि सुधर।
शुक फल में मुख नाय "रहे हैरिइहिं और को"।।132।।
छंदपद्धरि
समता
सरिता जुग करत नैन।
मुख कढ़े भानुजा नाथ बैन।।
बन वसन उधारे यदपि अंग।
छै रह्यो श्याम को सरस रंग।।133।।
दोहा
वैरागी हम विषय रत्त, वे वैरागी नाहिं।
जे अनुरागी श्याम के, उन रागी पग मांहि।।134।।
संत सरण अनुसार तब, हरन परम श्रम हेत।
इमि उपदेशे ताहि तिन, हरि कृत हिये निकेत।।135।।
पद
इतने दिवस बिताये योंही।
कितने जोग विजग विलोके कबहू,
तनक चेत नहीं तोही।
जग को परिवर्तन दृग देख्यो,
मन परिवर्तन अजहुं ना होही।
सेत केश यों तन पे छायो,
जम पग मंडे ज्योंही।
लोचन दीठि रही तबहूं अरु,
गई अब दीखत है त्योंहीं।
शिर कंपे थिर देह नहीं पे,
उर कंपित नहिं होहीं।
सुधि लकरी की रहै नित्य पे,
लकरिन की सुधि खोई।
श्री वृषभानु सुता पति सुमरे,
तो तोसी नहीं कोई।।136।।
दोहा
मेरो मेरो करत है, तेरौं कहा विचार।
तनहू लेरो ना करे, होय छिनक में छार।।137।।
मेरो मेरो करत अरु, देत फिरत भट भेर।
तेरो कबहुं नाहिं ते, हैरौ ऐकौ बैर।।138।।
छंदपद्धरि
सबतीर परै पर पीर नीर।
नहिं नाव लखै बिन नैक धीर।
दुख दीन देखि सहजै सुभाव।
कहि नाव आव पुनि नाव आव।।139।।
सुनि लगे विलोकन बीच धार।
पुनि कही लगी यहिं कढ़ी पार।
बिच दुरी आय निकरी नगीच।
गिरते गुविन्द ज्यों सिंधु बीच।।140।।
निकरे भव सरिता सह विहाय।
सब प्रेम भरे जब परे पांय।
पे मचलि परे महि महा भक्त।
वॉज की रज में परमानुरक्त।।141।।
दोहा
श्री वृज रज तन में लगी, मन में नेह अपार।
लोटन लागे विवस महि, श्यामा श्याम पुकार।।142।।
कढ़ि आये झट निकट ही, कुंज छोरि घनश्याम।
जग जननी हूं मद गति, तजि आई तिहि ठाम।।143।।
निरखि विकल तर धर पर्यो, दास कलप तरु दोर।
अंक कर्यो महि खसि पर्यो, हरि उछंग को छोर।।144।।
सोरठा
सुत ज्यों अंक उठाया तुरत लियो वृष भानुजा,
निज लोचन जल छाय।। तेहि दृग अंचल पोंछिके।।145।।
दोहा
तात तात इहि भांत क्यों, भूमि पर्यो विलापत।
तात आपनी साथ मुहिं, वृथा कियो बृजनाथ।।146।।
वसन बढ़ावन हार हरि, वसन चुरावन हार।
नाव निकरात क्यों करी, तीन वार लों वार।।147।।
चितयो श्याम शरीर पुन,ि कह्यो मात अनखात।
इन कपटी री कुटिलता, जानी जात न जात।।148।।
एक बार तूं देख मुहि, कहै सैन समुझ्या।
परम रिसाने सुवन को, प्यारी लेहु मनाय।।149।।
देखि जुगल छबि अस दया, अखिल ईश की देख।
सुधि त्यागी तन मन सकल, लागी नाहिं निमेख।।150।।
अति अनुरागे लोग सब, लागे कहन विचार।
अधिक अभागे जीव जे, त्यागे अस रिझवार।।151।।
तिनके देखत तीनहु, तहँ भये अंतर ध्यान।
सब जन निज निज भवन गै, जनम कृतारथ मान।।152।।
विरज धन्ज वृज रज अहो, धन्य धन्य बृजधाम।
ऐसे सेवक सहित जहं, विहरत श्यामा श्याम।।153।।
धनि वृज रज अचरज भयी, वृजपति जन को जीव।
जिहं बिन व्है न रुचत हैं, अनत राधिका पीब।।154।।
कुंज कुंड मंदिर विपिन, शिला शैल सरि गाम।
घाट बाट वृज की रजहिं, बार ही बार प्रणाम।।155।।
कुंजकुंज अति अलिन की अवलिन के गुंजरा।
मानहु सुर सुभ श्याम की, मुरली मधुर उचार।।156।।
सोरठा
वृज के कुंड निहार। नरक कुंड कोउन परे।
पातकि पावन हार।। जल जल जान समान यह।।157।।
दोहा
जिन मंदिर में बसत नित, छबि मंदिर घनश्याम।
तिनकी का महिमा कहौं, धाम धाम में धाम।।158।।
विपिन विहारी के विपिन, फिरै प्रेम सों जोई।
सो न फिरै गो लोक तें, जो पापी हू होई।।159।।
सोरठा
वृजकी शिला समान। मानस मेरो होहिं क्यों,
परसत पद भगवान।। भानु दुलारी सहित जे।।160।।
दोहा
सबतें ऊंचे हरि कियो, ऊचे कर गिरधार।
तासों ऊंचो आन कह, ताको नीच विचार।।161।।
ज्यों ज्यों उतरत जमुन जल, पान करन सोपान।
त्यों त्यों चढ़त प्रवीन नर, प्रभु पावन को पान।।162।।
गाम नाम सों रहत वृज, हरि के जे परधाम।
जिनके मन में काम तेहिं, ब्रह्म हू लगे निकाम।।163।।
ध्यान करे आपहिं मिले, प्रबु पावनी वाट।
ज्यो चाहिय सो पाइये, कहा घाट पे घाट।।164।।
वपाट कहा वृज की अहै, प्रभु पावन की वाट।
हैं जमेश के देश के, ये ही कठिन कपाट।।165।।
समरथ सकल प्रकार तें, हैं हमार भगवानं।
पे उन चरण सनेह बिन, उरन चाह अब आन।।166।।
विन आधी तिनको भई, आधी रात वितीत।
साधई जोग समाधि त्यों, प्रभु तें बांधी प्रीत।।167।।
करुणा कर निज दास को, दारुण वाद विचार।
कुंत लहै कर तब भये, सुरत तुरंग सवार।।168।।
सवैया
रेनि अंधेरिन हेरि परे कर,
सांवर वाजि चढ़े अतुराये।
गौर सरुप अनूप लसै दुति,
देह निशातम देत नशाये।
ज्यों शिर केश किरीट प्रभा,
हय पीठ तथासु खमा हरि छाये।
के धन सावन के शशि पूरन,
मो मन मांहि मनो चलि आये।।169।।
तो लगि तोन लसें कटि मूठि,
लिये धनु धायन तुरंग विराजे।
सावंर रुप सरुप सुहावन,
बीज बन्‌ो शशि सी छवि छाजे।
आय मिले सहजैं अनुजैं,
दुहुं भाय लखे छवि की छवि लाजे।
बारक तारन वार न कीन,
जथा हरि बारन तारन काजे।।170।।
दोहा
वाहन वाहन करि तुरत, दंपति मन भगवान।
बान निबाहन आइ गे, शिशु शव जाही थान।।171।।
सवैया
छोरि तरुंग तुरंत अनंत,
रखाखनि बालक बारिह कीन्हौं।
श्री करतें धरतें शिर जोरि,
वहोरि अरोहण वारन कीन्हौ।
कै करुणा करता जग जाहिर,
शेष निदेश जियावन कीन्हौ।
सो सहसा अकुलाय उठयो,
मतमारहि यो रव कीन्हौं।।172।।
दोहा
विसरि गयो भूषण कहूं, कहि कहिहों नहि भेव।
दादा अपराधा बिना, मत बाधा अब देव।।173।।
दृग ढांपे दोऊ करन, कांपे कोमल गात।
कहैं उबारन हार सों, मानर के सी बात।।174।।
जुग कर लोचन दूर कर, तन की धूर छुड़ाव।
मारन हारन कोऊ यह, कारन हमें सुनाव।।175।।
वन भारी कारी निशा, मनजु अहारी जीव।
वय वारी प्यारीन तुहिं, प्यारी गत ज्यों क्षीव।।176।।
सुधा हिलोरे वचन सुनि, लोचन ओट निवार।
अति धोरे ठाढे लखे, जुग धोरे असवार।।177।।
सवैया
कै शि केशव कै शशि सुरज,
के जलमनाथ किधौं सुर राई।
पे वृष वान नाहिं विहंगम,
संग समान मनो हर ताई।।
पाश नहीं कर में गिर दारन,
पार न पैयत रुप महाई।
के पितु मातु सु मानस मांहि,
निवास कियो इन दास सहाई।।178।।
दोहा
जैसे सरस सरुप को, मात पिता उपदेश।
करत मोहि सो ही किदौं, जुगल रुप अखिलेश।।179।।
मात पिता मुख जस सुने, सो सनमुख छविधाम।
निरखि निरखि निहचे करे, मन ही मन अभिराम।।180।।
सवैया
यों अनुमान करें, मन ही मन,
बालक वारहिं बार विलोके।
रुप अपार निहारन में दृग,
हार न मानत पे पल झोंके।।
त्यों पुनि पूर रही पुलकावलि,
नीर सनेह घनो बढ़ि रोके।
पे मन मत्त मतंग समान,
झुक्यो उहिं और वही अवलोके।।181।।
तेसेहि शीश किरीट लसे,
दुहु कानन कुंडल तेसहि सो है।
किंकर तेसहि हैं मुख की,
सुखमा मन ज्ञातहु को मन मोहै।।
मेचक माथ लसे कच यों,
तम तेज मनों गहि बांधि लयो है।
चारिहुँ और धिर्यो निकर्यो नहिं,
पे निज बाह पसार रयो है।।182।।
नभसूर उदौ अविलकोत हो,
सर सीरुह सुन्दर ताई लहै।
रवि से मुख पे सुख सो दिलसे,
चख कंजन की छवि कोन कहै।
अरुणाधर में दुति दांतन की,
शशि माणिक में प्रतिबिंबित है।
शुक आनन नाक समानन पे,
तस रंग सु औठन में उभ है।।183।।
दोहा
वेव तीनि के तीनि पथ, के सुखमा के सोतष।
रेखे देखे कंठ की, तीनिहु तापस मोत।।184।।
सवैया
उर आयत भूषण भूरि लसे,
निशि नाथसमेत नछत्र मनो।
तिन मांहि परे प्रतिबिंब जथाष
उर औक अनेकन लोक बनो।
अथवा मम संमुख जीव भये,
तिहिं राखहुं यों करि नेह घनो।
उर भूषण के मिस तो प्रगस्यो,
उर मांहि धर्यो प्रण धौं अयनो।।185।।
रचि लोक अनेक अलौकिक जे,
अविलोकत ही सब शौक हरें।
तिनकौं गनि तुच्च तजे तिन ज्यों,
तनकौं जिनको मन नाहि ढ़रें।
जिनके उर खास निवास कियो,
अरु वे विनवास वनो विहरें।
जियरे अस धौं जग वास विचार,
विशाल हिये निज दास धरें।।186।।
दोहा
दुंहुं भुज भुषण में परे, दुंहुं भुज भूषण छांह।
भई जथा रथ वात जनु, बंधु र्बधु की बांह।।187।।
सोरठा
अमिय निकारन हेत, जुग मंदर दर दरन को।
मणिधर नाग समेत, शिव कर सोभा देत धौं।।188।।
दोहा
कटि परिकर सुन्दर लसे, मन बरबस बंधिजात।
भूषण में अरुझात जनु, वसन बीच बसिजात।।189।।
नख शिख लौं सुखमा सदन, वरणि कहैं कवि कौन।
छविहू की छवि जात छपि, मतिहू को मति मौन।।190।।
जेहि के जनहू की अहो, महिमा सीमा हीन।
सो आपुहि मो अधम हित, धनि श्रमण तो कीन।।191।।
ध्रुव ज्यों उपज्यों जानके, दिव्य ज्ञान भगवान।
जसुमति ती युनि मति करी, माया पति गुन खांन।।192।।
जध्यपि छांने रहत नहिं, तहुन पिछाने जाय।
अस मायापति तब दई, शिशु की मति भरमाय।।193।।
अंतरयामी का कहा, मेरिहु बात न ज्ञात।
अधिक उजारी निशि कही, विभुकारी किहि भांत।।194।।
यों अनेक अनुमान तें, पुरुषोतम पहिचान।
यथा ज्ञान शिशु तब कही, अपनी बात बखान।।195।।
सुनि सूधे शिशु वचन में, कठिन कुटलि की बात।
नारायण बोले तबै, नरता प्रगट जनात।।196।।
प्रभुवचन
जीवे
वरष अपार निज, पीवे रुधिर निकार।
तौंहू ऐसे पाप को, पूरो ना परिहार।।197।।
ऐसे हित जिन कियो, ऐसो अहित महान।
तिन हित निर्मित करहि का, नये नर्क भगवान।।198।।
संत सबको हित करे, तो पित परम पुनीत।
सज लीनी इक साधुता, तज दीनी नृप नीत।।199।।
पापिन को करि पक्ष जे, पहूमी नाथ कहात।
तिनके ते अपकर्म को, भलि भांति फल खात।।200।।
याही ते अनुमान यह, हमको होत कुमार।
योग सुखन अस संत को, भयो वियोग तुम्हार।।201।।
सूची बचवन शत्रु को, आप त्रिशुल संहत।
पर कर कीटक परिहरे, गर धर विषधर दंत।।202।।
पे करतहिं पातक तुरत, नृप डंडत जाही।
व्याज मूल सों लहत है, दंड दंड घर पाहि।।203।।
दानव गुरु वामन जथा, रघुवर जथा जयंत।
अंतक दुख सों राखले, करि के इक दृग अंत।।204।।
सज्जन सेवा जो करी, इतने दि न चित लाय।
इतने हो में याही ते, सो कदापि बच जाय।।205।।
जिन ज्यायो तो कोन गर, रेख मिटायो लाल।
छत्रिन के छतसामुहहै, सोभ ालहै विशाल।।206।।
कीर कंठ में रेख ज्यों, हर गर् गरल सुहाय।
हरि चरणोदक त्यों रहे, औंषध से अधिकाय।।207।।
हमरो मत एतो कुंवर, पितु कह कहहु बुझाय।
अब हम काहू काज हित, जित आये तित जांय।।208।।
चोपाई
बालक विकल भयो सुनि बानी।
दुख वियोग उर में अनुमानी।।
'चतुर' करी चतुराई ऐसे।
वन मह मोहि जाहू तजि कैसे।।
हरि ज्‌ायो अरु तुम अपनायो।
जीवित को पुनि आप जिवायो।।
जो तुम नहीं आवत इहि ठौरा।
वन में कौन सहायक मौरा।।
अपनाये को ना परिहरिये।
निज घर लौं शिशु गुनिश्रम करिये।।
समुझि गये सुनि कै शिशु मनकी।
जाननहार सदा हरिजन की।।
धरलों हमतो कह पहुँचे हैं।
ऐसे ही घर में नहिं ऐं हैं।।
यों कह संग चले दुहु भआई।
बालक बीच लिये सुखदाई।।
जाकहं प्रभु आपहि पहुंचावें।
सो निज धाम आप किन पावें।।
ग्राम धाम दूरहिं दिखराई।
शिशु को विदा कियो समुझाई।।
शिशु को घर सनमुख हरि कौनो।
अंतरधान रुप करि लीनो।।
हरि को तजि घर की दिशि धावे।
प्रभु को पुनि सो किहिं विधि पावे।।
पहुंचत निसा लखी अधियारी।
घर में तम वन में उजियारी।।
तात तात कहि जब गुहरायो।
तनु धरि जनु अद्भूद रस आयो।।
सकल विचार करे मन मांही।
बोलत बाल सरिस को ह्यांहीं।।
जौं लौं पुनि बोल्यो शिशु टेरी।
तौ लौं अंग तरंगन फेरी।।
तरक तरंग उतंग पसारे।
इक उठि बढ़े एक निरवारे।।
सुनि पुनि उमंगि परे जब दोरी।
शिशु मह लियो खोली पट पोरी।।209।।
दोहा
सुनि समझाय बुझाय शिशु, पठयो जाहिज वास।
दंपति घर संपति निरखि, उर अति बढ्यो हुलास।।210।।
चोपाई
कोऊ आलिंगत कोउ उर लेही।
कोउक करे निछवार देही।।
कोउक नैन नेह जल छाये।
चितवहिं पुलकि एक टक लाये।।
मातु पिता उर जो सुख आयो।
सो नहिं कवि कहि कै समुझायो।।
सुख शरीर धरि जनु प्रगटान्यो।
सुख किल हाय नाथसुख आन्यो।।
सो शठ तो रोवत ही आयो।
रोवन ही निज भाग लखायो।।
सब शिशु कथा कही विस्तारी।
सुनत अचंभित भे नर नारी।।
दोरि गये जित अश्व बताये।
तह नहिं अश्व न ते प्रभु पाये।।
नयन नीर तहकी छिति छिरकी।
समुझि कर्म गति तिनमति धिरकी।।
सकल धाय शिशु के पद पर से।
इन आंखिन सों जिन हरि दरशे।।
मातु पिता मन हरि पद लीनो.
प्रभु को अनुशासन सब कीनो।।
रहे सकल ते आनंद ही ते।
नित को सुख नित जिन हरि चीते।।
सो प्रभु सदा प्रगट यहि भांति।
भगति बिना यह अगम लखाती।।
याते भक्ति कृष्ण की कीजे।
यह तन तो छिन ही छिन छीजे।।
फिर नर तन पावो कब भाई।
याते सुमिरहु हरि चित लाई।।211।।
दोहा
मम अवगुन उर किम धरे, जे सज्जन गुण गेह।
ह्वे प्रसंन वर देहु यह, नारायण सों नेह।।212।।
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