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(आभार राजस्थान पत्रिका)

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समान बत्तीसी
परमार्थ विचार
चतुरवचनामृत

समान बत्तीसी
यद्यपि चन्दन बिन्दु मिस,
बन्दत सकल सुजान।
तदपि तिहारे बिन चहे,
समजे नहीं समान।।
गुरिह ब्रह्म जे कहत हैं,
ते चञ्चल मति मान।
कही कहन के दोष की,
तिन हिन समझ समान।।2।।
चार बीस अवतार तो,
जानत बहुत अजान।
पाँच बीसवें आपकी,
सांची समझ समान।।3।।

परमार्थ विचार
(1)
आकाश सूं वायु, वायूं शूं अग्नि, अग्नि शूं जल, जल शूं पृथ्वीउत्पन्न व्हिया, अणी रो प्रत्यक्ष प्रमाण यो है, के वायु आकाश विना नी रेवे, अग्निवायु विना नी रेवे, जल अग्नि विना नी रेवे (कड़ा व्हे'जाय पत्थर भी बरफ रा व्हिया शुण्या है) ने पृथ्वी जल विना नी रेवे।

(2)
बडा बडा पर्वत आदि जणी में दीखे सो ही महादर्पण है, ने जणी में सब प्रतिबिम्बित व्हे'रिया है, सो ही श्री परमेशर है।

(3)
इच्छा रो नी ऊठणो मोक्ष है, ने अणीरो विस्तार ही बन्धन है।

(4)
एक वस्तु में भी अनेकता, बुद्धि शूं व्हे' शके हैं। यथा रंगपणा में अनेक रंग, फेर वांरा संयोग रा अनेक नाम के' है। मनुष्यां में, ने पार्थिव वस्तुवां में पृथ्वी एक व्हेवा पे भी मनुष्य आदि जीव, कपड़ा, तन्तु, वर्णरा भी तन्तु, यूं असंख्य भेद व्हे'शके है, सो केवल बुद्धि रो हीज भेद है। अनेकता कुछ भी नही है, जतरो विस्तार करो वतरो व्हे'शके है। परन्तु समावेश भी एक रो एक में व्हे'शके है, ज्यूं आकाश में सब वस्तु रो।

(5)
अहंकार हीज सब वस्तु रो कारण है। जीव अणी शूं हीज अविद्या में पड्‌यो है। यो हीज सब अनर्थ रो कारण है, परन्तु अणी रो ठीक तरे'शुं पतो चलायो जाय, तो कठेई नी लागे, अणी ने मिटावणो चावे।

(6)
जीव में शरीर है, शरीर में जवी री भ्रान्ति है, स्वप्न शरीर में ज्यूं जीव री भ्रान्ति है। वास्तव में स्वप्न-शरीर ईं शरीर में जीव है, वणी में है।

(7)
प्र.-अहंकार कई वस्तु है ?
उ.-अग्नि पे धूओं जो तरे' कई वस्तु नी है, अग्नि शूं प्रगट है, बिना अग्नि रे रे'नी शके है, ने अग्नि तो धूआं विना भी रे' है। गीता में-
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादशों मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्‌।।
--अ. 3 श्लोक 38
वासंदी ने धुओं ढांके, ज्यूं ढांके रज आरसी।
चामड़ी गर्भ ने ढांके, यूं ईं ने ढांकियो अणी।।
--स्व. अनुदित
गीताजी रा ई श्लोक भी याद राखवा योग हैं।
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुभ्दवः।
महाशनो महापाप्मा विद्वये नमिह वैरिणम्‌।।
--आ. 3 श्लोक 37

यतो यतो निश्चरित मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत।।
-अ. 6 श्लोक 26
काम यो, क्रोध भी यो ही, यो रजोगुण शूं व्हियो।
महाभूखो महापापी, ईं ने वैरी विचार थूं।।
धिरता छोड़ने जावे, जीं पै मन चंचल।
आपरे मांय ले आवे, वीं वीं में शूं समेट ने।।
स्व. अनुदित

दोहा
झूठे घर को घ कहे, सांचे घर को गोर।
म्हे जावां घर आपणे, लोग मचावे शोर।।

(8)
सब प्रकार शूं सर्व आनन्दकारी सब समय में श्री ईश्वर रा नाम रे समान कोई उत्तम साधन नी है। ईंरा स्मरण करवा में यदि चित्त अठी रो उठी भमतो फिरे तो घबरावणो नी, बराबर स्मरण कर्यां जाणो, ने विचार यो करणो के नाम स्मरण कर रियो हूँ। यदि चित्त नी ठे'रे तो पाछो नाम पे धीरे-धीरे लावणो, महाआनन्द प्राप्त व्हे'। अणी री महिम में श्री गोस्वामीजी महाराज तुलसीदासजी आज्ञा करे है।
कहहुं कहां लगि नाम बड़ाई।
राम न सकहिं नाम गुण गाई।।

सब साधन सौ सरल अरु, सब सों उत्तम जान।
सब ही सों अति कठिन है, सुमिरण श्री भगवान।।
स्व रचित
प्रथम जिह्वा शूं, ने पछे कंठ शूं, यूं क्रम शूं मानसिक पे आवणो। मनुजी लिख्यो है के वाचनिक, उपांशु ने मानसिक, अणां में उत्तरोत्तर विशेष है।
पातञ्जल योग सूत्र में प्रथम पाद रा 23, 28, 29, 30, 32, 44, 45 वां सूत्र अणां वातां रा प्रतिपाकद है।
देव पुराण सब हो एकम व्हे' ने या बात केवे है। कोई प्रणव (ओंकार), कोई राम, कोई कृष्ण, कोई शिव, अथवा युगल सीतराम, ने शिवपार्वती आदि रो प्रतिपदान करे है। पण वास्तव में लक्ष्य एक है। घमा खरा ठग होठ हलावा रो मा'वरो करे, कतराक री माला पे आगल्यां दोड़वा लाग जावे। परन्तु स्रमण व्हे'णो चावे। स्मरण व्हेवा पे शून्य नाम जपे वांनी भी अनुभव व्हे' है। यदि नाम शूं अणी जन्म में अनुभव नीं व्हे' या बात कोई विचारे तो वणी ने या भी विचारणी चावे, के ईश्वर अथवा ईश्वरीय वस्तु केवल तर्क प्रतिपादित नी है। करवा शूं खबर पड़ेगा। सूर्य पश्चिम में ऊगे तो भी नाम प्रत्यक्ष प्रभाव बतायां विना नी रे' है। या बात सव, अधिकारी ने केवा री है, जो करे. दुष्ट बकवादी ने नी के'णी। जन संसर्ग (घमओ मिलणो) ने अति भोजन (ज्यादा खाणो) नाम में विघ्न करवा वाला है, ने मिताहार (अंदाज रो भोजन) रो साधन करने ईश्वर ने जपणो।
(ऊपरला लेख रे सिवाय अब परमार्थ रो विषय कई नी है, परन्तु तो भी मन में समझावा रे वास्ते गौण लिख्या जाय है अथवा अणीरा ह ज प्रतिपादक है।)

(9)
संसार मिथ्या है। अणी संसार में, ने स्वप्पन में कोई अन्तर नी है, केवल जणी जगा' यो दीखे, यो सपनो दीखे, अणी में सत्य प्रतीति व्हे' गई। वणी में असत्य प्रतीत जठे व्ही, वा ईश्वर छुडावे तो सहज छूटे। सब वणी री लीला (माया) है-
नट कृत विकट खगराया।
नट सेवक हिं न व्यापे माया।।
--राम चरित मानस

(10)
पुस्तक ध्यान सूं वांचणी, जो प्रसंग वांच्यो जाय, मानो आपां देखरिया हां।

(11)
यदि नाम, श्री सगुण ब्रह्म रो जप्यो जाय, ने चित्त चंचलता करे, तो वणी न ईश्वर री लीला री आडी लावणो, सो वो वणी में लाग, पाछो नाम पे आय जावेगा अथवा ध्यान में लगाय ने स्मरण करणो। ध्यान पूरो नी आवे तो एक अंग रो करणो। तो भी दर्शन नही व्हे' तो चित्त ने जश्यो रूप वणी रे ध्यान में आवे, वणी पे ही ठे'रावा री कोशीश करणी अथवा चित्र सनमुख पधराय ने एक टक दृष्टि जमावा रो अभ्यास करणो। वणी वगत आंख्यां तो वठी रेवे ने चित्त दर्शण करवा सूं हटे, तो या तो पाछो वठै हीज लगावणओ या स्मरण में लगावणो। स्मरण शूं हटे तो दर्शण में लगावणो अथवा आपां रा उपास्य देवता रो रंग ध्यान में राखणो। यो हठ योग रो उपाय 'त्राटक' है, सो सावधानी शूं करणो चावै। मगज कमजरो व्हे' वणी ने कम करणो चावै। उत्तमब्रह्मचारी ई ने हठ पूर्वक कर शके है। निगुर्ण ब्रह्म रो नाम जप्यो ाय, तो वणी रा विशेषण री आडी चित्त लगावमओ, चञ्चलता करे तो बेदान्त विचारणो। सगुण निर्गुण एक है। पे'ली सगुण उपासना हीज ठीक है। पछे स्वतः निर्गुण ने पछाण लेगा। केवल अधिकारी रो भेद है-
अलख अरूप अखिल अज जोई।
भक्त प्रेम बस सगुण सो होई।।
जल हिम उपल बिगल नहि जैसे।।
--राम चरित मानस

(12)
स्मरण दृढ़ता पूर्वक करणओ, धबरावणो नी ने कम बोलणो।

(13)
श्री नाम ने हरतां फिरतां स्मरण राखणो, त्राटक रो अधिकारी नी व्हे' वणी ने ध्यान यूं करणओ चावे।

श्री आराध्य प्रभु रो चित्र सन्मुख आंखां बराबर कणी रे ई ऊपर थोड़ीक छेटी पधराय, प्रेम शूं दर्शन करणा, फेर झट आंख बन्द कर ध्यान करणओ, ध्यान में शूं सरुप निकले तो पाछी आंख खोल झट दर्शन कर, बन्द कर, फेर ध्यान करणो यूं बार बार करणो, पछे आंखां ने वतरी देर बन्द, ध्यान रो अभ्यास करणो, आंखां बन्द करवा शूं ेक दाण ध्यान व्हे' झट निकल, पाछो ध्यान आयजाय है। फेर हरतां फिरता ंहर समया नाम रुप स्मरण करणो।

(14)
अथवा मुख सूं कृष्ण नाम रो उच्चारण करणो, वणी रे साथे मन में राम के'णो।

(15)
स्मरण शूं मन शूनो व्हे' तो यथारुचि नवधा भक्ति में लगावणो, पण विषय री आडी नी जावा देणो।

(16)
म्हने यो विचार महा कठिन बिमारी व्ही, जदी व्हियो। बिमारीकोई कुपेच शूं व्हे' गई, सो खांसी रा सबब शूं ईंरो साधन नी कर शक्यो। परन्तु जो एक भी उत्तम वार्ता दृढ़ता शूं अणी री अंगीकार करेगा, उभय लोक सुधरेगा।

(17)
ब्रह्मचर्य हरेक कार्य में सहायता दे'है अणी रो निर्भाव कुसंगत शूं बच्यां शूं व्हे' है।

(18)
ई साधन मृत्यु समय रोगादिक में कठिनता शूं व्हे' सो मृत्यु सम्नुख जाण ने तुरन्त आरम्ब कर देणआ।

भज भगवान कूड़ मत भाखे, प्रभु भज्यां कटे दुख पाप।
बापो साथ न हाले बेटो, बेटा साथ न हाले बाप।।
हँसलो खोख साथ नहिं हाले, जुदा जुदा व्हे' देह रु जीव।।
पीतम साथ न हाले प्यारी, प्यारी साथ न हाले पीव।।
मन थूं चेत हाथ ले माला, जाला जीव तणां कट जाय
माता साथ न हाले मो भी, मो भी साथ न हाले माय।।
तज सो काम झाल ई कतरी, राम नम भझ ले दिन रे'न।
बे'ना साथ न हाले बन्धू, बन्दू साथ न हाले बे'न।।
पुन्न धरम कियां भुगत गत पावे, माठा करम कियां जम मार।
कबकहे दान जगत सो काचो, सांचो राम नाम तैतसार।।
--लच्छीरामजी देशणोक।
---
वेदान्त सिद्धान्त सबको है सार,
मन वस कर हर को भजे, है तन्त सार।--

अन्तरगत न्यारा रहै, धाय खिलावत बाम।
राम कृपा जब होत है, कह्यो जात है राम।।
भाग बिना भजिये नहीं, भजियाआवे भाग।
तुलसी ऐसे जान के, रहो नाम लव लाग।।
जीव हते जोहर करे, खावत करे बखाम।
पीपा परतछ देखले, थालली मांय मशाण।।
तीरथ करिया वरत करिया, हरि आयो सब धाम।
दो'रो देख्यो सन्त दास, राम भजन को काम।।
---
तीन धका में सन्तदास, सकल बिकल व्हे' जाय।
मासन मरे रोग विपत धन हरे, लोह का ताला तूटे मोह का नी ?
--
कहा तजै तन को विभौै, मन को विभो अपार।
जिन तजियो मन को विभौ, त्यागी विभुवन सार।।
--जवारमल कन्दोई देशणोक

(19)
संसार मिथ्या है, ईश्वर (ब्रह्म) सत्य है, अणी रो प्रत्यक्ष प्रमाण स्वप्न-दृष्टि है। यदि मनुष्य संसार ने सत्य माने और वणी री भावना करे, ज्यूं स्वप्न पदार्थ री भावना सत्य करे तो वो बी संसारवत् सत्य ही दीखेगा, या निर्मल चित्त करवा पर मनुष्यन े निश्चय व्हे' शके है। दीखे भी है, के उन्माद रोगी नी व्हे' वां वातां ने भी सत्यम ाने है। इन्द्रजाल (मेस्मेरीझम) में भी यूं ही है। असत्य सत्य दीखे है। संयम शूं योगी नवीन अन्तःकरण-विश्वमित्रजी नवीन संसार बणायो यूं ही-(वणाय शके है ?) यो भी है। ईश्वर री इच्छा मात्र है, सो वणी री उपासना शूं छूट शके है।

(20)
प्राणायाम भी उत्तम साधन है, वणी में रोगादि व्हे'णो संभव है। परन्तु युक्ति शूं करे तो सब रोगां रो नाश ने परम सुख प्राप्त व्हे'।

(21)
विषय सुख आत्मसुख शूं विशेष नी है। किन्तु आत्मसुख समुद्र ने' विषय-सुख एक कणिका रो सबसंसार में विभाग कर्यो है। ज्यूं-
जो आनन्द सिन्धू सुख रासी।
सीकर ते त्रेलक्य सुपासी।।
-गोस्वामी तुलसीदासजी
यदि या शंका व्हे', के महात्मा लोग भी अणी (विषय) सुख में उलझया थका हा' शुणवा में आवे। पाराशर, सौभरि आदि ज्यांने आत्म सुख रो अनुभव हो।

मनुष्य जो कारम करे सुक रे निमित्त हीज करे परन्तु ज्यादा करवा शूं वीं री आदत पड़ जाय, ज्यूं निद्रा नी आवे जद नशो करे,फेर आदत पड़ जाय, सो छूटे नी। एक काल (समय) में चित्तदो क्रिया (काम) नी करे। जणी वगत अनेक जन्म रा अभ्यस्त (भोग्या थका) विषय सुख स्वतः (आपो आप) प्रगट ने आत्मानन्द ने भूल जाय, वणी वगत तुलना (बराबरी) करवारी बुद्धि ही नष्ट व्हे' जाय है। ज्यूं क्रोध में भी महात्मा प्रवृत्त व्हिया हा।परन्तु क्रोध में कोई विचारवान् सुख रो अनुभव नी करे। एक तो महात्मा रो कामादि में प्रवृत्त व्हे'णो ईश्वरेच्छा शूं व्है' है।
जो सब के रह ज्ञान एक रस।
ईश्वर जीवहिं भेद कहुं कस।।
श्री मानस
वणा रा प्रारब्ध हीज वणां ने प्रवृत्त करे है, परन्तु वी क्षण भर भी अनुभव शूं नी हटे-
"सक्ता, कर्मण्यविद्वांसो, यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासकक्तश्चिकीर्षु लोंकसंग्रहम्‌।।"
--गीता 3-25
अज्ञानी ज्यूं करे कर्म, फल में उलझया थका।
लोगां रे वासते ज्ञानी, त्यूं करे उलझाया विना।।
स्व अनुदित
"हत्वापि स इमांल्लोकान्त हन्ति न निबध्यते।"
गीता 18-17
वो मारे सबपने तो भी, नी मारे नी बंधे कदी।।
स्व अनुदित
फेर जणी समय में नीचा दर्जा रा अनुभवियां ने विषय-सुख में आत्म-सुख री स्मृति लुप्त व्हे' जाय, ने पुनः स्मृति व्हेवे जदी वी महा पश्चात्ताप करे है। आशा (इच्छा) री निवृत्ति ही सुख है, ने सुख में इच्छा थोड़ी देर हलकी पड़े है, परन्तु आत्मसुख में बिलकुल नष्ट व्हे'जाय है, तो आत्मसुख हीज विशेष व्हियो, या अनुभव सिद्ध है।

(22)
आत्मा ही आकाश आदि पञ्चमहाभूत व्हे'ने भासे है। वास्तव में पञ्चमहाभूत कई वस्तु नी है। यथा ज्योतिदर्शण रे समय वा हीज ज्योति कणी समय जल दीखे, पृथ्वी दीखे, मनुष्यादिक भी दीखे, ब्राह्मण्ड भी वणी में दीखे, पण वणी वगत वणी प्रकाश (ज्योति) रा वश्या दर्शण व्हे'णा बन्द व्हे जाय है। फेर ज्योति रा दर्शण सावधान व्हे' ने करे तो पदार्थ दीखणो बन्द व्हे जाय है। पदार्थ वीं समय में दीखे, के ज्योति दर्शणकरवा में मन गफलत करे, यूं ही या हीज वात संसार, ने ब्रह्म मेंपण है। ब्रह्म प्रकाश में जगत दीखे है।

(23)
जो संसार एक ही नी है, तो मकान रे पड़वा रो आदमी शूं मिलवा री, वगेरां प्रथम ज्ञात किसतरे'व्हे' शके। पुस्तकां री पार्सल आवा री प्रथम ज्ञात क्यूं व्हे'है।

(24)
ब्रह्म वो है, के ज्यूं निर्मल आदर्श (काच) में सब जगत प्रतिबिम्बित दीख रियो है। ब्रह्म एक है, वणी में ही सब चीजां रो प्रतिबिम्ब दीखे है। आप ही देखे है, आप ही दीखे है, ने आप पृथक् है।
अनुभव गम्य मजहिं जेहि सन्ता।

(25)
संसार प्रेम री सहज परकी्‌षा या है, के शास्त्र शूं अविरुद्ध वणी रो कोई भारी अनिष्ट करतां व्हां' जश्यो वीं ने देखावणो अथवा एकान्त में बैठ निरन्तर भजन करणओ, स्नेही रो कोई काम नी करमो, तो भी जो बराबर प्रेम राखे, तो जाणणो के कुछ है। परन्तु मृत्यु रे समय बडो भारी पेरमी भी आपणी कुछ भी सहायता नी कर शकेगा, विशे, तो की अंगोठा रो दरद भी नी मिटाय शकेगा।

(26)
हरेक संसार रो काम आसक्ति रहित व्हे'ने करवा शूं काम नी व्हे'ने व्हे' जाय तो सुख नी व्हे' यो अभ्यास उत्तम है।

"तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्मं समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म पमान्पोति पूरुषः।।"
गीता 3-19

अनासक्त अणी सूं व्हे' आपणा कर्म थूं कर।
ईंतरे शूं करे सोही, पावे परम धाम ने।।

घणा आदमी अणी ने असम्भव माने परन्तु-

"अभ्याससेन तु कौन्तये वैराग्येण च गृह्यते।"
--गीता 6-35

साधना और वैराग्य, होवे तो मन नी डगे।

शुरु में अणी अभ्यास ने भूल तो जाय, फेर याद राख राख, ने करतो जाय। प्रारंभ करतां ही तो सबां रे सब की काम सिद्ध नी व्हे' है। अगर नी छोडे, तो अवश्य सिद्ध व्हे' शके है। अणी रो महात्म्य गीताजी में खूब लिख्यो है।

(27)
ईश्वर ने यूं याद राखमओ, ज्यूं कोई भूलवा रा स्वभाव वालो आदमी जरूरी काम ने याद राखे है। हरेक काम करती वगत भी वणी ने यो हीज ध्यान रेवे के अमुक काम भूल नी जाऊं, सब शूं जरुरी बडो काम यो हीज है।

हरिःस्मरणम्
जणी तरे' दुश्मण शूं छली मनुष्य (ठग) आपमी दुश्मणी मन में राख ऊपर शूं बड़ी उत्तम वातां करे, ज्यूं ही संसार रो व्यवहार ऊपर शूं कर अन्तःकरण में स्मरण राखणो, और भी नरा दृष्टान्त केवे है। मुख्य तो यो हीज के दृढ़ता शूं जो काम कीदो जायगा अवश्यक सफल व्हे'गा।

(28)
शब्द ने अर्थ एक नी है। एक तो मूर्खता शूं है, सो न्यारा न्यारा जाणणा।

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डा. सुरेन्द्र सिंह पोखरणा, बी-71 पृथ्वी टावर, जोधपुर चार रास्ता, अहमदाबाद-380015,
फ़ोन न.-26925850, मोबाईल- 09825646519, ई-मेल--sspokharna15@yahoo.com

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