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(आभार राजस्थान पत्रिका)

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परमार्थ विचार

(29)

"स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनाद्वा" अ. 1 सूत्र 38
यो 'पातञ्जल दर्शन' रो सूत्र है। जाग्रत स्वप्न में चित्र ठे'रावणो शूवती समय नाम स्मरण करतां शूवणो, अथवा चित्त रो अन्वर्वृत्ति नाम में लगाय पुस्तक शुणणी, वणी समय नाम शूं चित्त पुस्तक में नी जावा देणो। अणी शूं अनेक संकल्प हटने जागृत करे। पुस्तक श्रवण मात्र शूं संकल्प हटावणो रे'जाय है। वो भी निद्रा शूं मिट केवल स्मरण हीज, जो अन्तर्वृत्ति में है, रे' जाय। ईं में जो अनुभव व्हेवे, वीं ने जागवा पेली बार बार याद करणो स्वप्न शूं निद्रा आवे, वणी वगत चित्त ठे'रावणो, दूसरो दर्जो, अर्थात् अणी शूं कठिन है।परन्तु श्रेष्ठ भी व्हे'गा। क्यूं के मुनिराज आज्ञा करे है-समाधि प्राप्ति रे वास्ते, जणी शूं। (30)

मनुष्यां शूं वातां करती समय जो स्मरण कीधो जाय अथा सभा में वातां व्हे'ती व्हे', जीं समय चित्त स्मरण में लगायो जाय, वो एकान्त रा स्मरण शूं घणे दर्जे उत्तम है, पण कठिन भी है।

(31)

एकान्त में संकल्प मिटवा शूं व्यवहार में संकल्पनी व्हेवा देणा, अर्थात् असंसक्त व्यवहार करणो विशेष है। क्यूं के संकल्प रो संग्रह, व्यवहार में आसक्ति राख ने करवा शूं हीज व्हे' है। जतरी आसक्ति शूं व्यवहार व्हे'गा वतरा ही संकल्प प्रबल व्हे'गा।

 (32)

कणी वात रो यूं नी विचार करणो के 'या, नी व्हे' तो आछो, वा व्हे' तो आछो।' कर्त्तव्य कर्म करता रे'णो कठिन है, पण अभ्यासमुख्य है।

(33)

नर संसारी लगन में, दुख सुख सहे करीर।

नारायण हरि लगन में, जो होवे सो थोर।।

(34)

"याथ क्रीडोपस्कराणां, संयोगवियमाविह।
इच्छया क्रीडितुः स्यातां, तथैवे शेच्छया नृणाम्‌।।" जणी तरे'शुं खेलवा वाला री इच्छा रे अनुसार खेलकण्या कदीक भेला भी व्हे' जाय, ने कदीक न्यारा भी। अणी तरे'शुं वणी बडा खेलवा वाला (भगवान्) री इच्छा शूं मनुष्य भी मिलता, ने विछड़ता रेवे है।

(35)

"यन्मन्यसे ध्रुवं लोकमध्रुवं वा न चोभयम्‌।
सर्वथा हि न शोच्यास्ते स्नेहादन्वत्र मोहजात्‌।।"
अणी संसार ने मनुष्य कोई सत्य समझे, ने कोई असत्य भी समझे। परन्तु ई दोई वातां नी है। मोह सूं उपज्या थका स्नेह रे सिवया वणां (महात्मां) री शोच नी करणो चावे।

(36)

"यत्रागतस्तत्र गतं मनुष्यं
स्वयं सधर्मापि शोचत्य पार्थम्‌।।"
जठा शूं आयो हो, वठे हीज पाछो गया थका मनुष्य ने खुद भी मरवाववालो व्यर्त ही रोवे है, अर्थात् मरवावाला मनख ने लोग व्यर्थ हीज रोवे है। क्यूं के वो तो जठा शूं आयो हो, वठे हीज गयो, ने आपां ने पण वठे हीज जाणो है। फेर रोवारी कई वात।

(37)

"अहो वयं धन्यतमा यदत्र
त्यक्ताः पिंतृभ्यां न विचिन्तयामः।
अभक्ष्यमाणा अबला वृकादिभिः
स रक्षिता रक्षति यो हि गर्भे।।"
अहाहा-महां लोग बड़ा ही बड़भागी हां। पिता-माता म्हां छोड़ दीधा, तो भी कोई विचार नी है। म्हां, विना सहायता वाला ने सिंह आदी भी नी खाय शके है। कारण जणी गर्भ में रक्षा कीधी, वो हिज अठे भी रक्षा करेगा, ने कर रियो है।

(38)

दो वातन को भूल मत, जो चाहे कल्याण।
'नारायण' इक काल को, दूजे श्री भगवान।।

(39)

चल्यो चल जट जमुना की तीर।
जग के द्वन्द मन्द क्यों झेले, ले'ले लोभ अधीर।
श्याम सुजान बिना को हरि है, भारी ब की भीर।।
यह आयुष दिन हो दिन छीदे, छिन 2 लटत शरीर।
जहाँ रह राधा महारानी, अरु सब रहत अहीर।।
वंशी वट पे जहाँ विराजे, नटवर श्याम शरीर।
चल्यो चल झट जमुना की तीर।

(40)

जयति जयति हमुमान, जय, बुद्धिमान गुणवान।।
ऐसो मूरख नृपति कहाँ, सो वसि है मतिहीन।
केअपने प्रभु से विमुख के अध ही में लीन।।
....
दीन हित राम तजि और कौन हेराँ।
....
सखि अब धाम लीजे जाय।
रहीजो बहुपुरि सुखमा कही का पै जाय।
जनम को फल पाय।
....
प्यारे, काहै, गये तुम घर पर।
वा सोतिन ने कहा पढ़ि राख्यो, दौरि जात ता घर पर।
अपने घर पट बन्द देखि कोउ, खुले जात का घर पर।।

(41)

मनसा शून्य है, अर्थात् अदृष्ट है। वस्तु दृष्ट है, दोयां रो संयोग (एकता) अज्ञान जन्य है।

(42)

विराट शरीर एक है, हिरण्यगर्भ (चित्त) भी एक है। कारण भी एक है। कारण शूं हिरण्य गर्भ यूं है ज्यूं सुषुप्ति शूं स्वप्न, हिरण्यगर्भ शूं विराट्, (यूं है, जूं) स्वप्न, सूं जाग्रत् है वास्तव में एक हीज।

(43)

"इन्द्रियाणि पराण्याहुरिति"
इन्द्रियां विषय शूं परे है, यानि आगे है, तो इन्द्रियां और व्हो', ने विषय और व्हियो, तो अणा रो सम्बन्ध व्हे' शके नी। यूं ई आगे भी इन्द्रियां, ने विषय एक ही है, तो हर्ष शोक कई ? वी तो वी'ज (विषय हीज ) है, यूं आगे भी।

(44)

इच्छा अहङ्कार आदि शूं बन्धन है, परन्तु बन्धन अदृष्ट है। ज्यूं कींने ईं पुस्तक री इच्छा व्ही'तो पुस्तक और है, ने इच्छा और पुस्तक फाटजावा शूं इच्छा रे कई नुकसान व्हियो? इच्छा मिटवा शूं पुस्तक रो कई बिगड़ गयो ? यांरी एकता ही नुकसान (दुःख) करे है। सम्पूर्ण जगत इच्छा में है। इच्छादि कुछ भी नी है, शून्य व्हेदा शूं। शून्य शूं बन्ध नी व्हे'। ज्यूं ाकाश शूं कोई नी बंधे।

(45)

"ब्रह्मार्पणमिति" ब्रह्म ही सबहै। "वासुदेवः सर्वमिति" (श्री कृष्ण हो सब कुछ है) तो अणी रो विचार यूं करमओ के, जो विचार व्हे' वीं विचार ने घटावा बढ़ावा रो जो विचार व्हे' सब श्रीकृष्ण है, तो दूजो कई नी। ईंशूंसबरे साथे योविचार करणो के पुस्तक वांचूं यो भी श्रीकृष्ण है। यां दोई इच्छा ने छोड़णो, ने करणो सो भी श्रीकृष्ण है, सब श्रीकृष्ण है।

(46)

अणीरो खुलाशो अहंकार ही शूं बन्धन है, अणीरे नाश व्हेवा शूं मोक्, व्हे' है। अणीरी प्राप्ति ममतादि जगत शूं बढ़े है, यो शरीर में रे है।
प्रश्न- यो शरीर है, वा जगत है, या बात कि तरें साबत व्हे' ?
उत्तर-मन शूं वा बुद्धि शूं।
प्रश्न- मन कश्यो है ?
उत्तर-'अदृष्ट' (नी दीखे) है।
प्रश्न-अणी में कई प्रमाण ?
उत्तर-सुख दुःख री ज्ञान व्हे'।
प्रश्न-सुख दुःख कई वस्तु है ?
उत्तर- अनुकूल (चावां सो) सुख, प्रतिकूल (नीं चावां ने प्राप्त व्हे'सो) दुःख।
प्रश्न-चावणओ नी चावणो कई है ?
उत्तर-इच्छा।
प्रश्न-इच्छा कई है ?
उत्तर-नी दीखे।

प्रश्न- हां, या बात साबित व्ही नी दीखे। जदी अशी चीज रा आधार पे दीखे है, या किसतरे की जावे। जो आप ही नी है, वा दूसरां नै किसतरे' साबित करे।
उत्तर-खरगोश रा शींग शूं कुण मरे, यूं ही जगत इच्छा (मन) रो कार्य व्हेवा शूं असत्य है ौर शरीर या अहंकार, एक चित्त री वृत्ति व्हेवा शूं असत्य है। क्यूं के वृत्ति कुल की असत्य है।
प्रश्न-तो एक मनुष्य रे मरवा शूं सब जगत रो नाश व्हेणओ चावे ? क्यूं के वृत्ति में है ?
उत्तर-मनुष्य रे मर्यां विना ही संसार रो नाश है, ने मरवो भी एक वृत्ति है, अणी शूं हीज समाधि में संसार नी दीखे वा सुषुप्ति में भी नी दीखे, क्यूं के वृत्तियां रो वठे लोव व्हे' जाय है।
प्रश्न-तो एक आदमी रे सुषुप्ति व्हे' वीं वगत नखलो (पासवालो) आदमी तो मर जाणो चावे, क्यूं के सुषुप्ति वाला री वृत्ति में वो नी है ?
उत्तर-ई प्रश्न व्हे' सो पुर्वोक्त वात रे निश्चय नी व्हेवा शूं असंख्य व्हे' शके है। सुषुप्ति वाला नखे जो आदमी जीव रियो है, वो कई वस्तु है, कोई वृत्ति रूप है, ने वृत्ति असत्य है, तो वो भी असत्य व्हियो।
प्रश्न-तो यदि कोई जीव नी रेवे तो पर्वतादि रेवे के नी ?
उत्तर-कोई जीव भी नी है, पर्वतादि भी नी है, जीव भी वृत्ति रूप है, पर्वतादि भी वृति रीप है, वृति असत्य रूप है। जो रेवे है, वृति अनेक है, तो भी वृति में ही ज। जणी रा आश्रय शूं वृति स्फुरे है, वो ईश्वर भी कृष्णचन्द्र एक हीज है। वृति रो अत्यन्ताभाव व्हेवा शूं ईश्वर में वृत्ति नी है, वृत्ति में हीज वृत्ति है, ज्यूं है हो ही सिद्धांत योग रो है, के श्री पातंजलजी महाराज पे'ली वृत्ति निरोध शूं हीज दृष्टा रो स्वरूप में स्थित व्हे'णो निरोध शूं हीज दृष्टा रो स्वरुप में स्थित व्हे'णो मान्यो है। क्यूं के वृत्ति के'वा शूं वृत्ति री सरुपता तो ग्रहण करे है। यो ही वेदान्त रो मत है, के माया (चित्तवृत्ति) असत्य है। यो ही सांख्य रो है, के पुरुष मुक्त है। सब प्रकृत्ति (वृत्ति) ही रो खेल है। यो ही श्री भक्ति महाराणी रो सिद्धान्त है के:
"मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।"
प्रश्न-भक्ति रे ज्यादा विशे,णां री कई आवश्यकता है ?
उत्तर-जो जो जणी मार्ग शूं वठे पूगे, वो वणी री हीज प्रशंसा करे, भक्ति में भी यूं हीज है। परन्तु अधिकारी भेद अवश्य है।
भक्ति शूं पे'लो श्री करुणानिधान परमेशर में स्नेह बढ़े। स्नेह रो महात्म्य अठा तक है, के झूंठा संसार में जो स्नेह बढ्‌यो है, वणी हाल तक ईश्वर सन्मुख व्हेवा नी दीधो है। अेक जन्म अणी जीव रा वीत गया।
प्रश्न-अश्या स्नेह री फेर तारीफ क्यूं ?
उत्तर-अगर यो सांचां में व्हेवे, तो फेर पाछा पड़वारी सम्भावनानी रेवे। यो ही ज कारण है के ज्ञानी पड़ शके पर भक्तां रो कदापि पतन नी व्हेवे।
"न मे भक्तः प्रश्यति,
पतन्त्यतो नादृतमुष्यदंघ्रयः।"

फेर भक्ति अेनक प्रकार री व्हेव शूं सब मनुष्यां रो अधिकार है। स्नेह तो कणी ने कणी में जीव रो व्हेवे हीज है, सो यदि फेर ने परमेशर में कर दीधो जाय, तो तो सहज में व्हे' शके हैष और ज्ञान री प्राप्ति भी विना ईश्वर कृपा नी व्हेवे ईं यू वणी री कृपा रो ही अवलम्बन मुख्य है।
प्रश्न-भक्ति री प्राप्ति किस तरे' व्हेवे ?
उत्तर-उत्तम वस्तु री प्राप्ति भी करुणानिधान विना कुण कर शके। पण वणी रो नाम भी वश्यो ही दयालु है, सो वैराग्यादि साधन युक्त व्हेणो चावे। अणी रो वर्णन पे'ली व्हे' चुक्यो है।

(48)

प्रश्न-माया कई है ?
उत्तर-चित्त वृत्ति रो सत्य जाणणो।
प्रश्न-ईश्वर कई है ?
उत्तर-जणी शूं झूंठी चित्तवृत्ति (माया) सांची जाणी जाय है।
प्रश्न-जीव कई है ?
उत्तर-एक चित्त री वृत्ति अहंकार रूप।
प्रश्न-ब्रह्म कई है ?
उत्तर-अवाच्य, (वर्णन नी व्हे' सके) अणी शूं ईश्वरोपासना शूं शीघ्र मुक्ति व्हे' है। क्यूं के मायाप्रेरक वो हीज है।

(49)

प्रश्न-वृत्ति शून्य है। नी है तो पर्वतादि स्थूल पदार्थ प्रत्यक्ष दीखे सो कई है ?
उत्तर-वृत्ति नी है, तो भी स्तूल ज्यूं दीखे सो वृत्ति हीज स्वपन्न में दीखे हैा। स्वप्न असत्य, अणीरी वृत्ति असत्य, केवल श्री कृष्णचन्द्र सत्य है। प्रमाण श्री गुसांईजी महाराज रीः-
उमा कहौं मैं अनुभव अपना।
सत हरि भजन जगत सब सपना।।
जेहि जाने जग जांहि हिराई।
जागे यथा सपन भ्रम जाई।।
अणां ने विशेष लिखवा शूं विस्तार रो भय है।
प्रश्न-श्रीकृष्ण ईश्वर है, अणी में कई प्रमाण ?
उत्तर-श्री गोपाल तापिनी आदि उपनिषद् तथा गीता और वेद आदि सब ही सहमत है, अवतार सिद्धि, वल्लभाचार्यजी श्रीकृष्ण चैतन्यजी आदि रा वैष्णव सम्प्रदाय रा ग्रंथ देखवा शूं निश्चय व्हे शके' है। ईश्वर रो लक्षण जो वेद में है, वो श्रीकृष्णचन्द्र में पूर्ण मिले है। "पातंजल दर्शन" रो सूत्र भी अणी में प्रमाण है। ज्ञानी ने तो सिवाय श्रीकृष्णचन्द्र रे दीखे हही नी, श्रीकृष्णचन्द्र में कई ईश्वरता है, विराट रुप दर्शनादि अनेक कृष्णचन्द्र है।
प्रश्न-यो तो मेस्मेरिजम योगी भी कर सके है ?
उत्तर-योगी मेस्मेरिजम वाला, अद्वितीय पदार्थ नी देखया शके, जन्म शू ंही चतुर्भुज रुप नी देखाय शके। पे'ली जो वसुदवे देवकी उपासना कीधी, वरदान सांचो करवाने अवतार व्हियो, और वणी या ही ज चाही "निजानन्द निरुपाधि अनुपा" वेद प्रतिमाद्य जो ईश्वर म्हाणों पुत्र व्हे' सोई वरदान दे अवतार लीधो।
प्रश्न-या वात कणी शूं जाणी जाय है ?
उत्तर-जणी शूं, "श्रीकृष्ण व्हिया," या वात जाणी जाय, वणी शूं ही या भी जाणी जाय।
प्रश्न-श्रीकृष्ण री जन्म आदि री वात तो मन शके, और वा तो नी मन खे है ?
उत्तर-तो मन आपो ही मानां हां, यूं के'णो चावे। यदि नशा में आपां रो मन अगम्य ने गम्य माने वा अभक्ष्य ने भक्ष्य माने तो वणी ने शास्त्र सिवाय कुण रोक शके। जदी के रे'ल नी ही, तार नी हा, फोनोग्राफ नी हा, मोटर नी ही, मेस्मेरिजम वा योग रो कोतुक नी देख्यो हो,जदी अणाँ वाताँ ने भी मन नी मानतो हो पण अब माने हीज है। ई शूं थारां ज्ञान शूं छेटी और कई कई चीजाँ है, वी थाँ किसतरे' जाण शको हो।
प्रश्न-ईश्वर सर्व व्यापक, एक स्थान मे आय गयो, तो और स्थानां पे कुण हो?
उत्तर-वो ईश्वर एक रस है, एक जगा' हीज है। या वात, के'णो मिथ्या है। तो कुछ वणी रे विषय में के'णी नी आवे:-
मन समेत जेहि जान न बानी।
तकिं न सकहिं सकल अनुमानी।।

ज्यूँ हवा करवा शूं पंखो जठे हाले वठे हीज पवन है, और जगा' वणी रो अभाव है, सो तो नी है। यूँ ही वो प्रेम शूँ, भक्ति शूं प्रकट व्हे' ने दर्शन देवे, तो वीं री एकरसता में तथा सर्वव्यपाकता में फरक नी पड़े, और पेटली रो अर्त विचारवा शूं तो अतरी शकंा नी व्हेवे।
मेरो मेरो करत है, तेरो कहा विचार।
ज्याो तेरो त्याों और को, या में कहा विकार।।
या में कहा विकार भार सिर यों ही धारे।
निर्मल दिनकर बीच रात को वृथा निहारे।।
कहे मन्दमति 'चतुर', आपनी सो नहिं हेरो।
पड्‌यो और को दाम, कहे तूं मेरी मेरी।।
...
झूठी खूँटी रोपि के, मिथ्या रसरी आन।
तहँ असत्य इक पशु बैध्यो, समुज्यो नहीं सुजान।।
समुझ्यो वहीं सुजान, दान छाया द्विज लीनो।
फेर भयो परिताप, बिना जाने श्रम किनो।।
कहे मन्दमति 'चतुर', कछू कतहूँ नहिं टूटी।
टूटे कहा अजान, प्रथम खूँटी हू झूठी।

(50)

सुर नर मुनि सब की यह रोती।
स्वारथ लागि करहिं सबह प्रीती।।
--श्री राम चरित मानस
वीजणवास गाम में एक डांगी रे बलद मर गयो सो वो घमओ रोयो, जाणे कोई मनख मर गयो व्हे'। एक कुत्त रे माथा में कीड़ा पड़ गया, वणीरे रोटी नकावा री, ने दवा री हिफाजत चायो सो लोग म्हारा पे पूरा नाराज व्हे' गया और एकान्त में निन्दा करवा लागा। अगर कोई मनख व्हे' नी अणी वात ने विचारे तो मतलब सिवाय कोई कणी रो ई नी हैः
अरे नर अपने हित को रोवै।।
अपनो स्वारथ त्यागि जगत में तेरो कोऊ न होवे।
तिनके हेत हाय मूरख (नर) निज नजम अकराथ खोवे।।
अपनो हित परमातम दर्श सो सपनेहु नहिं जोवे।
यातें त्यागी अहंता ममता अन्तर मल किन धोवे।।

(51)

हृदय देश में ध्यान साध वा जप साधन एकाग्रता भी उत्तम साधन है। ईं शूं सहज ही प्राण ब्राह्मण्ड में प्राप्त व्हेवे है, ने चित्त एकाग्र व्हे जाय है, यदि कुछ रोग री संभावना व्हेवे तो मानसिक करणो। गुरु रा उपदिष्ट, मार्ग शूं ब्रह्मचर्य व्हेवे तो रोग री संभावना नी व्हे'।

(52)

चंदेरिया मेंविजली पड़ी। छः मनख बल्या। एक लुगाई तीरे छोटो छोरो हो, दूध पीवे जश्यो, वो बच गयो ने लुगाई बल ई। अणी शूं जाणी जाय है, के आयु पुरी व्हियां विना वज्र शूं भी कोई नी मरे, ने आयू पूर्ण व्हियां पे अमृत शूं भी नी वचे।

(53)

विराट सब एक है। यूं ही हिरण्यगर्भ एक है। यूं ही अव्यक्त (माया) एक है, यूं ही ईश्वर एक है, यूं ही ब्रह्म एक है। स्थूल जगत स्थूल शरीर विराट है। सूक्ष्म जगत सूक्ष्म शीर (अहंकारादि) है। कारण शरीर जठा शूं अहंकारादि प्रवृत्त व्हेवे, वो है। ईश्वर, ने कारण शरीर जमी री संनिधि शूं प्रवृत्त व्हे', वो ब्रह्म (ज्यो यां सब शूं भिन्न) है। स्थूल शरीर जड़ है, ने एक ही है। वणी में भूतां री समता विषमता शूं कृशता, घोरता, आरोग्यात ही प्रतीत व्हे' है, ज्यूं पृथ्वी में भाटा, मेर, सीगा उषर आदि अनेक भेद व्हे' जड़ कई काम नी करे, सूक्ष्म शरीर जश्यो जश्यो काम करे वश्यो वश्यो शरीर ने अपणों मान लेवे। रे'ल में जश्यो जश्यो टिकट लेवे वणी तणी क्लास में बैठे। यूं ही सूक्ष्म शरीर भी स्वयं संक्लप रूप व्हेव शूं ने पराया (माया) री प्रेरणा वालो व्हेवा शूं कई नी करे। माया नी असत्य है, पर ईश्वर री सन्निधि व्हेवा शं सत्य प्रतीत व्हे',ज्यूं काच में सूर्य रो प्रतिबिम्ब पड़े सो काच रे शामो भी नी देखणी आवे।
जदी माया है ही नी, तो माया री समीपता कि तरे' व्हेवे ? ईं शूं निर्विकार नित्य सच्चिदानन्द अनाम अचिंत्य एक ही है। वमी रो ही भक्तां रे वास्ते सगुण रुप व्हेवे है, जो के परमपद है। विराट असत्य है। क्यूंके अहंकार शूं आकाश व्हियो सो शून्य है, आकाश शूं वायु। वींमें शब्द आकाश रो, ने स्पर्श निज रो गुण व्हियो। तेज में शब्द स्पर्श रुप व्हिया यूं ही आगे भी।

(54)

पृथ्वी जशी आपाँ ने दीखे वशी नी है। क्यूंके गन्ध पृथ्वी रो गुण है याने गन्ध ही पृथ्वी है, सो गन्ध नासा इन्द्रिय (नाक) शूं जाणी जाय है, सो पृथ्वी रो प्रत्यक्ष नासा शूँ व्हे'णो चावे। नेत्राँ शूँ तो रुप रो प्रत्यक्ष व्हे' है। यूँ ही सब भूत तन्मात्रा रुप है। तन्मात्रा इन्द्रियाँ में है। क्यूँके इन्द्रिया विना गंधादि री सिद्धि व्हेवे नहीं, इन्द्रियाँ सूक्ष्म शरीर में है। सूक्ष्म शरीर शूं ही स्थूल में प्रतीत व्हेवे। अगर स्थूल में व्हेवे तो स्वप्न में नी दीखणो ंचावे। क्यूँके स्थूल नेत्र बन्द है। मेस्मेरिजम में पेट शूं देखे, छाती शूं शुणे आदि इन्द्रियाँ रो परिवर्तन व्हे' जाय है। सूक्ष्म शरीर माया में है। क्यूंके असिद्ध सिद्धवत् प्रतीत व्हे'णो माया रो काम है। माया मायिक शूँ रमे है। मायिक दो तरेट रो व्हे', माया करतो थको, ने माया नी करतो थको। करे तो भी वो मायिक (ईश्वर) माया शूँ न्यारो है। क्यूँके वो वमी में बंधायमान नी व्हे शके। माया रो सांप शूं माया रो हीज मनख डरे। अश्य तमाशा में मायिक रे कोई हर्ष शोक नी है। क्यऊँ के डरे सो, ने डरावे सो, दोईं वींरा (मायिक रा-ईश्वर रा) वणाया थका है। जदी वो (ईश्वर) माया नी करे, तो विना माया वालो (ब्रह्म) वाजे है। यूं ही सब संसार वीं री माया है। माया झूंठीव्हे' है। पण मायिक रा कारण शूं सांची दीखे है। "जूठों हे'रे झूठो जग राम ही दुहाई। कहौ के सांचे ने बनायो, या ते सांचो सो लगत है। समझवाने शास्त्र प्रवृत्त व्हे।" दूज्यूं अवाच्य है, ने जतरा शास्त्र है, सब अनेक प्रकार शूं समझावे है जीं शूं अनेकता दीखे है, गम्य का एक श्रीकृष्ण है।

 

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